Friday, February 1, 2008

अध्या ८

आझ सामलाल बड़ी खोस हथ । पहिले दिन अंग्रेजी के चौथा महीना के हल । आझ सामलाल बड़ी खोस हथ । पहिले दिन अंग्रेजी के चौथा महीना के हल । भोरे तार मिललैन के राय बहादुर हो गेला । नवाब साहेब किहाँ गेला और इनखा बोले से पहिले नवाब साहेब बोलला - मोबारक होबो । दे-ख हमर तो बदली हो गेल हे और हम समझलूं के तुं समझबा के झुट्ठे तोहरा बराबर दिलासा दे हलिओ । खैर, खोदा हमरा मुंह के लाज रख लेलका, नै तो सहरवाला लोग तोहरा हमरा पीछे में नोचथुन हल ।
सामलाल -(दुनो हाथ से सलाम करके, बड़ा खोसी से गदगद) जी हाँ हुजुर, कुल मेहरबानी । (तार देखला के)
नवाब साहेब - हमरो हीं तो चिट्ठी आल हे (और निकाल के चिट्ठी सिक्रेट्रीयट के देलका) ।
सामलाल - (चिट्ठी दु-तीन मरतवे पढ़ के) - कितना मोखतसर में और कितना खुबसूरत ई-सब लि-ख हथ !
नवाब साहेब - हां दे-ख, हमनी सब एकरे एक-दू सफा में लिखतूं हल ।
सामलाल - हमरा बारे में तो राय बहादुर बाबू सामलाल उपरे में लिख देलक हे ।
एतने में अरदली आके कहलक के राय बहादुर के खोजते ढेर से मोखतार वकील सब ऐला हे ।
नवाब साहेब और सामलाल दुनुं उठ के बाहरे अइला और सबसे मिलला जुलला । सब बोलला के आझ पूरा तवाजा हमनी सब के होवे के चाही और हुजुर भी जा रहली हे, एकरे साथे रायबहादुरी के कर देवे के चाहिअन ।
सामलाल कहला - हां, हां, जरूर । हम हरगिज तोहनी से अलग नै हिओ ।
नवाब - जरूर, रायबहादुर, फिर अब हम कहां रहबे और तूं कहां रहबा ।

सलाह होल के सहर भर में तवाजा कैल जाए और तब सामलाल बाबू सामसुन्दर प्रसाद मोखतार के, जे इ-सब में बड़ी आगू र-ह हला, दुकानदार और पान वाला के नाम से चिट्ठी देलका के जे जे चीज के जरूरत होवे द । समुच्चे सहर में रोसनी के भी इन्तजाम कैलका और सब के अपना तरफ से तेल-ढिबरी भेजवा देलका । मोखतार, वकील सब के एक नाटक के क्लब हल, उ आझ एक हंसी के नाटक करेला तैयारी कैलक । खोसी के मारे सामलाल के हवास के ठिकाना नै हल, कहां की इन्तजाम हो रहल हे, कुछ ठीक से नै देख सकथ । आखिरकार सब कोई खैलक पीलक, तमाम सहर में रोसनी होल, तब ८ बजे नाटक सुरू हो गेल ।

नाटक सुरू होवे के पहिले सुतरधार आके कह गेल के बड़ी खोसी के बात हे, एहां आझ "फूल बहादुर" हम खेलवे, खास करके आज एहे वक्त ल बनौलूं ह ।

सामलाल और नवाब साहेब बड़ी खोस होला और नवाब साहेब बोलला - नाम तो बड़ी मजाक के मालूम होवे हे ।
सामलाल - बहुत अच्छा खेल सब खे-ल हथ ।
ड्राप उठते किउल स्टेसन देखलौलक ।
नवाब - वाह, बड़ा अच्छा सीन-सीनरी इ-सब के पास हे ।
सामलाल - जी हाँ हुजुर । हम भी एकरा में २००) के चपत में ही ।

खेल सुरू होल तो उपर जे लिखल गेल हे ओकरे हेरफेर करके नाटक बनावल किताब के खेल होवे लगल । एक-दू सीन के बाद नवाब साहेब के सक होल के सामलाल के बात मालूम होवे हे । नवाब साहेब उ जगह निसपीटर हला और सामलाल के जगह में एक वृन्दाबन वकील । सरबतिया के जगह पर वृन्दाबन के जोरू के नाम हल । नवाब साहेब तब सामलाल से कहलका - इ-खेल के किताब हे ? मां-ग तो । सामलाल किताब मांगलका और नवाब साहेब पढ़लका तो पैखाना में वृन्दाबन के मार खाय के बात पढ़के बड़ी मजाक समझला कि जल्दी से आखिर में देखलका तो खैला-पीला के बाद वृन्दाबन के, नाटक के नायक के एक दोस्त, मोहर डाकघर, राय बहादुर के खबर वाला चिट्ठी में देखेले कहलक और जब वृन्दाबन देखलका तो "रांची फूल्स पैरेडाइज" लिखल हल । गौर से देखलका तो मालूम भेल के कोई दूसर मोहर पहिले से हल और रांची वाला मोहर जरी से ओकरा पर हल । टिकट उखाड़ के देखलका तो नीचे अंग्रेजी में लिखल हल "अपरैल फूल ।" पढ़ला पर नवाब साहेब सामलाल से कहलका - मामला गड़बड़ मालूम होवे हे, चिट्ठी तुं लेला हल हो ?
सामलाल - जी, हां । सामलाल चिट्ठी के तबतक समझ रहला हल और एस-डी-ओ एहां से लिफाफा के भी जेकरा अरदली फाड़ के बिग देलक हल, खोजके साथ रखले हला । नवाब साहेब लिफाफा के मोहर के देखलका । ठीक, सिमला "फूल्स-पैरेडाइज" के मोहर हल । "साबस" कह के उठला और हंसते चल देलका । सामलाल तो खपत हो गेला, उ टिकट उखाड़ के देखलका तो साफ अंग्रेजी टाइप से नीचे में छपल हलः ।


'फूल बहादुर'

*

No comments: