Friday, February 1, 2008

परिछन

मगही के पहिला उपन्यास लिखताहर श्री जयनाथपति के दूसर उपन्यास "फूल बहादुर" के नया संस्करण पाठक लोग के हाथ में रखइत हमरा बड़ी आनन्द हो रहल हे । एकर पहिला संस्करण बइसाख, १९८५ वि॰ (अप्रील १९२८ ई॰) में निकलल हल । अप्रील के पहिला दिन बिलाइती सभ्यता में 'फूल्स डे' (मूर्ख दिवस) मनावे के चलनसार हे । उपन्यास के नायक के पहली अप्रील के बेकूफ बनावल गेल हल आउ 'रायबहादुर' के पदवी के फेरा में उनका "फूल बहादुर" (आनेकि "बेकूफ बहादुर") के पदवी मिल गेल हल । एही से ओही अप्रील महिन्ना में ई उपन्यास के फिर से छाप के हमरा बड़ी संतोष बुझा रहल हे ।

उपन्यास के मूल छपल प्रति पहिले तो बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, के श्री राधावल्लभ शर्मा से मिलल, बाकि ओकरा में एक पन्ना फटल हल आउ कई जगह दीयां चाट गेल हल, आउ सुरू वाला चार पन्ना "मुख-बंध" भी गायब हल । ई कमी के पुरती कयलन मगही के महाकवि श्री योगेश्वर प्र॰ सिंह 'योगेश' जी अपना पास के मूल प्रति देके । हम ई दुन्नो सज्जन के बड़ी आभारी ही कि इनकनिए के मदद से ई उपन्यास फिर से छप के अपने लोग के हाथ में पहुंच सकल ।

"श्री जयनाथपति मोख्तार के जनम सन् १८८० ई॰ में नवादा (गया) के सादीपुर गांव में भेल हल । सादीपुर गांव कादिरगंज के नगीच हे । इनखर पिताजी के नाम श्री देवकी लाल हलन । ... ... पढ़े में खूब जेहनगर हलन । ई आई॰ ए॰ पास करके मोख्तारी के इम्तिहान पास कइलन । नवादा में इनखर मोख्तारी खूब चलल । इनका संस्कृत, अंगरेजी, महाजनी, बंगला आउर लैटिन भासा के जानकारी हल; उर्दू-फारसी के तो पारंगते हलन । धर्म-चर्चा में खूब दिलचस्पी हल । गांधीजी के सुराज आंदोलन में भी भाग लेलन । सन् १९३१ ई॰ में नमक-कानून तोड़े के ओजह से ई कोट में बंद कर देल गेलन । पहिले रेभेन्यू केस में मोख्तार सब बहस नय करऽ हलन, इनखे कोरसिस से मोख्तार सब के रेभेन्यू केस में बहस करे के अधिकार मिलल । बिहार भर के मोख्तार इनका ऊंचा अस्थान दे हलन । सन् १९४० ईस्वी में इनखर मिरतू भेल । वारिसान में तीन लड़की आउर एक-लड़का रहलन ।" [१]

जयनाथपति मगही के हिन्दी-बंगला के बराबरी में खड़ा करेके सपना देखऽ हलन । एकराला उनकर मन में ढेर किताब लिखे, लिखवावे और छापे-छपवावे के हल । लगऽ हे, अपन जिनगी में ऊ जादे कुछ न कर सकलन, बाकि अपन चार किताब तो छपवैलन, एकर सबूत मिलऽ हे । पहिला उपन्यास हल 'सुनीता' । एकर नामकरन बंगला के विद्वान आउ बिस्व-बिख्यात भाषा-शास्त्री श्री सुनीति कुमार चटर्जी के नाम पर कयल गेल हल काहेकि उनके किताब "बंगला की उत्पत्ति और विकास" से मगही के जिआबे-जगावे के परेरना मिलल हल । अभी तक 'सुनीता' के मूल प्रति न परापित भेल हे, जइसहीं मिलत ओकरा हम मगही पाठक के सन्मुख रखे के जतन करम ।

'सुनीता' के कथावस्तु के बारे में डा॰ सुनीति कुमार चटर्जी के कहना हे कि हमरा इ उपन्यास के वातावरण बेस न लगल । उ में कहल गेल हल कि एगो बाभन लइकी दोसर जात के जुआन के साथ ई गुने निकल गेल हल कि उ दुनों में प्रेम हल । सोभाविक हल कि बाभन लोग एकरा से रंज भेलन आउ जब उ प्रेमी के खिलाफ फौजदारी मोकदमा चलल तो नाइका उनकर कार्रबाई ला एगो जोसीला भाषन देलक आउ छूट गेल । अइसन कहानी उ समय फरक-फरक जात के बीच वैमनस्य पैदा करत हल, आउ हम ओकर सिखउनी वाला टोन के भी पसीन न कइली काहेकि, हालांकि हमरा पक्का इयाद न हे - उ लइकी एगो पुरनिया के घरनी हो चुकल हल ।" [२] इनकर तेसर रचना हल "गदहनीत" । चउथा हल "स्वराज्य" जेकरा में १९३५ के भारत सरकार के कानून मगही में लिखल हे । [३] इ तीनों किताब के छपल प्रति मिलइत पाठक लोग तक पहुँचावे के जतन कयल जायत ।

"फूल बहादुर" के पहिला संसकरण क्राउन साइज के ४- पेज में छपल हल । जिल्द पर एगो जोकर के तस्वीर हे जे हैट-बूट पहिनले दहिना हाथ से घंटी डोलावइत हे आउ बामा हाथ में आदमकद साइज के कागज लेले हे जेकरा पर "फूलबहादुर" बड़ा हरुफ में लिखल हे । तस्वीर के उपरे लिखल हे (लड़कन और औरत ले नै), तेकरे नीचे (मगही के दूसरा उपन्यास) । तस्वीर के नीचे - लिखवैया जयनाथ पति । कीमत (तीन आना) । उपरकी लाइन से ई साफ बुझा हे कि जउन जमाना में ई उपन्यास लिखायल हल ऊ घड़ी लइकन आउ औरत लोग के उपन्यास के पढ़ना बरजनी हल; काहेकि एकरा में कोई अइसन अस्लील बात न लिखल गेल हे ।

डा॰ सुनीति कुमार चटर्जी "फूल बहादुर" के मजाकिया व्यंग (सटायर) कहलन हे । बिहारशरीफ के मोख्तार साहेब सामलाल बड़ा धुरफंदी हलन । इनका पर रायबहादुरी के जनून सवार हो गेल हल । नया एस॰ डी॰ ओ॰ नवाब साहेब अयलन तो उनकर चमचागिरी करके आउ मन मोताबिक पतुरिया सप्लाई करके अपन मनकामना पूरन कयल चाहलन । बाकि उनका फलिहत न मिलल, आउ राय बहादुर के बदले में पदवी मिल गेल "फूल बहादुर" के । एही एतना कथा के ताना बाना में ऊ घड़ी के कचहरी आउ सरकारी अफसरान में फैलल भ्रष्टाचार पर बड़ी करारा चोट कयल गेल हे, हंसिये मजाक में ।

एतना तो इंसाफ हे कि ई उपन्यास मगही भाषा में होय पर भी एकरा पर आंचलिकता के कोई छाप न हे, एकरा में जउन समाज के तस्वीर उरेहल गेल हे उ बिहारशरीफ इलाका के गंवइ समाज न हे, बलुक सहरुआ समाज हे, ओहू पूरा न हे खाली कचहरी के चारों तरफ चक्कर काटऽ हे । कहीं इहां से बाहर निकलल तो पतुरिया के गली तक पहुंच के लौट आयल, बस ।

लगऽ हे, जयनाथ पति जी अपन मोख्तारकारी के अनुभो के आधार पर ई उपन्यास रचलन हल । एही से कचहरी के कारनामा के कच्चा चिट्ठा बड़ी खूबी से खोल के रख देलन हे । एस॰ डी॰ ओ॰ नवाब साहेब के मुंह से कचहरी के कारबार में सुधार के उपाय भी बतौलन हे, जे बड़ा सटीक हे । मगही समाज के आंचलिक तस्वीर के झलकी ऊ अपन पहिलका उपन्यास "सुनीता" में देखा चुकलन हल । तो "सुनीता" आउ "फूल बहादुर" दुनो मिल के ऊ इलाका के सहरु आउ गंवई तस्वीर पूरा करऽ हे । उपन्यास पढ़ला पर ई कहल जा सकऽ हे कि "फूल बहादुर" पात्र प्रधान समस्यामूलक व्यंग हे । उपन्यास कला के नजर से एकर परिछन सुधी विद्वान लोग करतन ।

भाषा आउ लिखावट में भी इनकर प्रयोग देखल जा सकऽ हे । "अध्याय" के बदले "अध्या" आउ "प्राक्कथन" के जगह पर "मुखबंध" सबद मगही में उनकर देन हो गेल । "समालोचना" सबद ला "परिछन" तो निछक्का मगही हो गेल । मगही लिखे में एक समस्या हरदम सामने आवऽ हे कि सबद के अकारांत अच्छर पर जे दीर्घ स्वर होवऽ हे ओकरा कइसे लिखल जाय । हमनी तो बिकारी - (ऽ) देके काम चलावऽ ही, जइसे "कहऽ", "चलऽ" । जयनाथपति जी एकरा ला अंतिम अच्छर के पहिले हाइफन से काम चलौलन, जइसे "क-ह", "च-ल" ।

पुस्तक के संपादन घड़ी कहीं-कहीं कुछ सुधार करे पड़ल हे, ओकरो बता देना उचिते होयत । पहिला छपाई में पूर्णविराम बहुत कम जगह पर देल गेल हे, जेकरा से, पढ़े में भी उसकुस होवऽ हे आउ अरथो लगावे में मोस्किल पड़ऽ हे । ई लेल जहां उचित समझल गेल , पूर्णविराम लगा देल गेल हे । पुस्तक के सुरू में उल्टा कौमा (" - ") के इस्तेमाल भेल हे, बाद में छोड़ देल गेल हे, संपादन घड़ी उल्टा कौमा एकदम्मे हटा के एकरूपी बना देल गेल हे । अइसने एकरूपताई लागी जहां-जहां "अै", "अे", के परयोग भेल हे, उहां "ऐ", "ए" बना देल गेल हे । हिज्जे में भी बहुत गड़बड़ी हल । एक सबद के कई तरह से लिखल गेल हल । ई संस्करण में ओही हिज्जे रक्खल गेल हे जे जादे उचित बुझायल । जइसे कहीं "ख्याल" लिखायल हे, तो कहीं "खेयाल" । मगही के परकिरती के मोताविक "खेयाल" के ठीक मानल गेल हे आउ ओइसने सुधार कर देल गेल हे । तइयो जउन सबद के एक्के हिज्जे पूरे किताब में रखलन हे, ओकरा बदले के कोरसिस न कयल गेल हे, जइसे 'बाकि' के बदले "बाकी" ।

मगही के ई छेयालिस साल पुरान उपन्यास फिर से छपल एकरा ला श्री लक्ष्मी पुस्तकालय के मालिक, मगही प्रेमी परमेश्वर प्रसाद के आभार न भुलावल जा सके जे अपन घनश्याम प्रेस में एकरा 'बिहान' के अप्रील-मई (१९७४) के जोइयां अंक आउ किताब के रूप में छपवावे के किरपा कयलन ।

पटना : अप्रील, १९७४                                    राम नन्दन

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[१] 'योगेश'; श्री जयनाथपति : मगही के पहिला उपन्यासकार, 'बिहान', अंक १०, बरीस ८, दिसम्बर १९६७, पृ॰ २ ।

[२] डा॰ सुनीति कुमार चटर्जी, "चिठियांव-पतियांव" में लिखल अँगरेजी चिट्ठी के उल्था, 'बिहान', बरीस १३, अंक २, फरवरी, १९७४, पृ॰ २९ ।

[३] योगेश, डपरकी, पृ॰ ३ ।

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